अब अपने गुनाहों पे वो शर्मिंदा कहाँ है इंसाँ भला आदम का नुमाइंदा कहाँ है कुछ और बुरे दिन न कहीं देखने पड़ जाएँ इस दौर-ए-फ़रासत में ख़िरद ज़िंदा कहाँ है हर चेहरा है इख़्लास की तनवीर से आरी ऐ शहर-ए-मोहब्बत तिरा बाशिंदा कहाँ है हम जिस के लिए माज़ी में ख़ूँ रोते रहे हैं अब सोच रहे हैं कि वो आइंदा कहाँ है हर सम्त नज़र आती हैं चलती हुई लाशें दुनिया में बशर है तो मगर ज़िंदा कहाँ है