अब न आँखों में कोई ख़्वाब बसाया जाए ख़ुद को कुछ और न मग़्मूम बनाया जाए आस की बज़्म में उड़ने लगी महरूमी की रेत इक नया शहर कहीं और बसाया जाए फूल कुछ अम्न-ओ-मसर्रत के खिलाए जाएँ सीना-ए-ज़ीस्त पे क्यों क़हर उगाया जाए वक़्त के सीने से कब हटती है यूँ रात की लाश कोई हंगामा कोई हश्र उठाया जाए अब चमकने से रहे चाँद सितारे 'मेहदी' ख़ून से अपने कोई दीप जलाया जाए