अब भी उस की याद आकर दिल को तड़पा जाए है

अब भी उस की याद आकर दिल को तड़पा जाए है
यूँ भुलाने से कहीं उस बुत को भूला जाए है

और गहरे हो रहे हैं अहद-ए-माज़ी के नुक़ूश
दिल का हर इक ज़ख़्म अब नासूर बनता जाए है

ख़ुद-बख़ुद इक हूक उठती है तड़प जाता है दिल
जान कर ऐ दोस्त वर्ना किस से तड़पा जाए है

हाल दिल का अब तो सूरत से अयाँ होने लगा
जिस को देखो मुँह मिरा हैरत से तकता जाए है

अब तो है तर्क-ए-तमन्ना ही ग़म-ए-दिल का इलाज
इन तमन्नाओं से दिल का दर्द बढ़ता जाए है

पास-ए-ख़ातिर है कहूँ क्या अपने चारा-साज़ से
बढ़ रही है टीस जितना ज़ख़्म भरता जाए है

जाम मिलते हैं 'शिफ़ा' को उन की चश्म-ए-मस्त से
लग़्ज़िशें होती तो हैं लेकिन सँभलता जाए है


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