अब छत पे कोई चाँद टहलता ही नहीं है दिल मेरा मगर पहलू बदलता ही नहीं है कब से मैं यहाँ बुत बना बैठा हूँ सर-ए-राह बुत है कि शिवाले से निकलता ही नहीं है सोने की जगह रोज़ बदलता हूँ मैं लेकिन वो ख़्वाब किसी तरह बदलता ही नहीं है मैं खींचता रहता हूँ उसे दिल से शब-ओ-रोज़ वो तीर मिरे दिल से निकलता ही नहीं है