अब दर्द-ए-मोहब्बत को ऐ दिल मिन्नत-कश-ए-दरमाँ कौन करे ख़ुद अपने ही हाथों उल्फ़त का बर्बाद गुलिस्ताँ कौन करे जब याद किसी की आती है इक बर्क़ सी लहरा जाती है जब हम ही दर्द के ख़्वाहाँ हों फिर दर्द का दरमाँ कौन करे इस शान-ए-तग़ाफ़ुल पर आख़िर जी छूट गया दिल टूट गया जब दिल ही हमारा टूट चुका फिर आप को मेहमाँ कौन करे जब बर्क़-ए-तपाँ लहरा लहरा अंगड़ाई फ़लक पर लेती हो उस वक़्त नशेमन कैसे बने तज़ईन-ए-गुलिस्ताँ कौन करे अब तर्क-ए-सितम के क्या मा'नी हर रोज़ नया गुल खिलने दो दो-चार दरख़्शाँ दाग़ों से दिल रश्क-ए-गुलिस्ताँ कौन करे मक़्सूद है क़द्र-ओ-क़ीमत भी ज़ेबाइश-ए-हुस्न-ए-ख़ूबाँ की हर ख़ून के आँसू को लेकिन अब ला'ल-ए-बदख़्शाँ कौन करे अब यास का आलम तारी है ये रात भी हम पर भारी है ऐ 'जौहर' उस के वा'दों पर अब ज़ीस्त का सामाँ कौन करे