अब दिमाग़-ओ-दिल में वो क़ुव्वत नहीं वो दिल नहीं 'शाद' अब अशआ'र मेरे दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं तू मिरे अश्क-ए-नदामत की हक़ीक़त कुछ न पूछ उस का हर क़तरा वो दरिया है जहाँ साहिल नहीं घर ख़ुदा का था मगर बुत इस में आ कर बस गए अब मुरक़्क़ा' है हसीनों का हमारा दिल नहीं नुक्ता-चीं हो मेरी रिंदाना रविश पर क्यूँ कोई मैं कोई ज़ाहिद नहीं वाइज़ नहीं आक़िल नहीं पर्दा-दारी करती है दर-पर्दा लैला इश्क़ की जज़्बा-ए-दिल क़ैस का है पर्दा-ए-महमिल नहीं इंक़लाब-ए-दहर से उल्टा ज़माने का वरक़ अहल-ए-महफ़िल वो नहीं वो रौनक़-ए-महफ़िल नहीं हिन्द में चलने लगी है अब हवा-ए-इंक़लाब 'शाद' सच है ये जगह रहने के अब क़ाबिल नहीं साग़र-ए-मय पेश कर के शैख़ कहलाता हूँ मैं हदिया-ए-अहक़र है ये गो आप के क़ाबिल नहीं हक़ में अब आशिक़ के देखें फ़ैसला होता है क्या इश्क़ का दा'वा हुज़ूर-ए-हुस्न तो बातिल नहीं