मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी कारवाँ थक जाएँ फिर भी जुस्तुजू रह जाएगी ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे भी चाहिए पास-ए-अदब वो जो रूठे तो अधूरी गुफ़्तुगू रह जाएगी ग़ैर के आने न आने से भला क्या फ़ाएदा तुम जो आ जाओ तो मेरी आबरू रह जाएगी इस भरी महफ़िल में तेरी एक मैं ही तिश्ना-लब साक़िया क्या ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू रह जाएगी हम अगर महरूम होंगे अहल-ए-फ़न की दाद से शेर कहने की किसे फिर आरज़ू रह जाएगी