अब घटाएँ चाहिएँ साक़ी न पैमाना मुझे उस के ग़म ने कर दिया हर ग़म से बेगाना मुझे ख़त्म कर देना है अब वहशत का अफ़्साना मुझे कह गए अपनी ज़बाँ से वो भी दीवाना मुझे नहनु-अक़रब की सदा देती है ख़ुद मंज़िल मिरी अब न काबा राह में रोके न बुत-ख़ाना मुझे दिल में जब शम-ए-हक़ीक़त शो'ला-रू हो जाएगी ख़ुद जला देगी समझ कर अपना परवाना मुझे क्या ग़म-ए-दौराँ की बातें क्या सुलूक-ए-दोस्ताँ क्यों सुनाती है ये दुनिया मेरा अफ़्साना मुझे अपनी कुटिया की रिहाइश पर है फ़ख़्र-ओ-इम्बिसात क्या लुभाएगा किसी का क़स्र-ए-शाहाना मुझे इस तरह ख़ुश हूँ कि जैसे 'शौक़' सब कुछ दे दिया बख़्श कर अल्लाह ने इक दिल फ़क़ीराना मुझे