अब क़ाबू में दिल क्यूँ आए अब आँखों में दम क्यों ठहरे जिस बस्ती में वो रहता था उस बस्ती में हम क्यूँ ठहरे जो रस और बू से आरी हो जिस फूल की धूप से यारी हो उस फूल पे भँवरा क्यूँ डोले उस फूल पे शबनम क्यूँ ठहरे क्यूँ वैद हकीम बदलते हो क्यूँ कुढ़ते हो क्यूँ जलते हो रिस्ना ही मुक़द्दर हो जिस का उस ज़ख़्म पे मरहम क्यूँ ठहरे हम रन्ज-पसन्दों ग़म-ख़्वारों शोरीदा-सरों के कहने पर आई हुई रुत क्यूँ रुक जाए जाता हुआ मौसम क्यूँ ठहरे जो मोती उस की पलकों पर झलकें वो क्यूँ अनमोल बनें जो छल्कें हमारी आँखों से क़ीमत उन की कम क्यूँ ठहरे पतझड़ में मौसम-ए-गुल में भी रोने पर भी हँसने पर भी हम लोग ही क्यूँ ज़ंजीर हुए हम लोग ही मुल्ज़िम क्यूँ ठहरे जब शहर में मुझ जैसे ख़ुश-गो ग़म-परवर और भी हैं उस को क्यूँ आए 'नज़र' दर मेरा ही घर मेरे हर ग़म क्यूँ ठहरे