इक साया सा है साथ मगर आश्ना नहीं मैं उस को और वो मुझे पहचानता नहीं इक वाक़िआ' है ये कि वो दिल में है जागुज़ीँ इक हादिसा है ये मैं उसे जानता नहीं ये और बात है कि ज़माना है मो'तरिफ़ मैं ख़ुद तो अपने आप को भी मानता नहीं कोई ठिकाना मेरा न मेरी कोई ज़मीं हूँ मैं भी ला-मकाँ पे कोई मानता नहीं वो ज़ख़्म ज़ख़्म कब है जो हो जाए मुंदमिल वो दर्द दर्द ही नहीं जो देर-पा नहीं माना कि उस के चाहने वाले नहीं हैं कम मेरी तरह तो कोई उसे चाहता नहीं दावा वफ़ा का यूँ तो है हर शख़्स को 'ज़ुहैर' ये वाक़िआ' है कोई भी अहल-ए-वफ़ा नहीं