अब कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे-असर पाते हैं हम फूल की पत्ती न हीरे का जिगर पाते हैं हम बे-निशाँ मंज़िल हुजूम-ए-रहगुज़र पाते हैं हम एक रहरव के लिए सौ राहबर पाते हैं हम गरचे हैं अक़्वाल-ए-ज़र्रीं से सजे दीवार-ओ-दर हर नसीहत लौह-ए-दिल पर बे-असर पाते हैं हम अब मुसलमाँ से हरम की पासबानी हो चुकी नील के साहिल को नंग-ए-काशग़र पाते हैं हम तौक़-ए-ज़र्रीं अस्प-ए-ताज़ी के गले में है तो क्या अस्प-ए-ताज़ी में भी अब औसाफ़-ए-ख़र पाते हैं हम इस चमन के नौनिहालों की इलाही ख़ैर हो आशियानों में छुपे बर्क़-ओ-शरर पाते हैं हम यूँ तो कहने को हैं 'मंज़र' सर हथेली पर लिए मस्लहत-बीनों को कब सीना-सिपर पाते हैं हम