बेदाद का लब पर मिरे शिकवा नहीं होता फ़रियाद से ज़ख़्मों का मुदावा नहीं होता यूँ घूर के दीवार को क्यों देख रहे हो दीवार पे तक़दीर का लिक्खा नहीं होता यूँ आज मुझे पाँव से ठुकराती न दुनिया दुनिया को अगर टूट के चाहा नहीं होता उँगली के इशारे पे जो हम नाच रहे हैं किस रोज़ मदारी का तमाशा नहीं होता हर चार तरफ़ ख़ाक पे बिखरे हुए होते तस्बीह के दानों में जो रिश्ता नहीं होता जिस क़ौम को इमरोज़ का इदराक नहीं हो उस क़ौम को अंदाज़ा-ए-फ़र्दा नहीं होता 'मंज़र' तपिश-ए-रेग में क्या ढूँड रहे हो सहरा की कड़ी धूप में साया नहीं होता