अब किसी को क्या बताएँ किस क़दर नादान थे हम वहीं कश्ती को ले आए जहाँ तूफ़ान थे कुछ तड़पती आरज़ूएँ चंद बे-मा'नी सवाल कारवाँ में सब के सर पर बस यही सामान थे हम ने इस दुनिया के मय-ख़ाने में ये देखा फ़रेब बस वही प्यासे रहे जो साहिब-ए-ईमान थे ज़लज़लों पर आ गया इल्ज़ाम अच्छा ही हुआ वर्ना इस तख़रीब के पहले से भी इम्कान थे उन ग़मों ने दिल में सदियों के वसीले कर लिए जो फ़क़त दो-चार दिन के वास्ते मेहमान थे बस यही सच है कि हम अब उन की महकूमी में हैं जो 'नफ़स' अपनी हवेली में कभी दरबान थे