अब किसी शाख़ पे हिलता नहीं पत्ता कोई दश्त से उम्र हुई गुज़रा न झोंका कोई लब पे फ़रियाद न है आँख में क़तरा कोई वादी-ए-शब में नहीं हम-सफ़र अपना कोई ख़ंदा-ए-मौज मिरी तिश्ना-लबी ने जाना रेत का तपता हुआ देख के ज़र्रा कोई जादा-ए-शौक़ पे कल लोग थे आते जाते अब 'शरीफ़' इस पे मुसाफ़िर नहीं मिलता कोई