एक बस तू नहीं मिलता है मुझे खोने को वर्ना क्या कुछ नहीं होता है यहाँ होने को देख बेदर्द ज़माने की ज़बूँ-हाली देख एक शाना नहीं मिलता है जहाँ रोने को रात-भर ख़ुद से गले मिल के बहुत रोती हूँ झूटे मुँह भी नहीं कहता है कोई सोने को कितनी मैली है हवसनाक निगाहों की चमक कि समुंदर भी बहुत कम है जिसे धोने को इस को भी हिज्र का तावान तो भरना होगा कोई दम में है मुकाफ़ात-ए-अमल होने को मेरी आवाज़ भी मुझ तक नहीं पहुँचेगी जहाँ मैं ने अपने लिए रक्खा है इसी कोने को कैसे वीरान हैं पत्थर से भरे खेत मिरे हल चलाने को नहीं बीज नहीं बोने को कोई किस तरह मिरे हाल से वाक़िफ़ होता मेरी आँखों में कोई अश्क न था रोने को खो गए ख़्वाब तो ऐसी भी बड़ी बात नहीं मैं ने बाक़ी ही कहाँ छोड़ा है कुछ खोने को आसमानों में किसे ढूँड रही हूँ 'सीमा' वो तो बैठा है मिरे दिल में ख़ुदा होने को