अब क्या गिला करें कि मुक़द्दर में कुछ न था हम ग़ोता-ज़न हुए तो समुंदर में कुछ न था दीवाना कर गई तिरी तस्वीर की कशिश चूमा जो पास जा के तो पैकर में कुछ न था अपने लहू की आग हमें चाटती रही अपने बदन का ज़हर था साग़र में कुछ न था देखा तो सब ही लाल-ओ-जवाहर लगे मुझे परखा जो दोस्तों को तो अक्सर में कुछ न था सब रंग सैल-ए-तीरगी-ए-शब से ढल गए सब रौशनी के अक्स थे मंज़र में कुछ न था