अब लौट के वापस मुझे जाना भी नहीं है वो रूठ गया है तो मनाना भी नहीं है सच है कि निगाहों से गिराना भी नहीं है पलकों पे मगर उस को बिठाना भी नहीं है दामन पे कोई दाग़ लगाना भी नहीं है दामन को गुनाहों से बचाना भी नहीं है ग़ैरत की कोई किस तरह उम्मीद रखे अब सब जानते हैं अब वो ज़माना भी नहीं है तामील किसी हुक्म की हरगिज़ न करेंगे और पेश-ए-सितम सर को झुकाना भी नहीं है इक बार चला जाए जो दामन को छुड़ा कर भूले से कभी उस को बुलाना भी नहीं है बरसात ने ये हुक्म हवाओं को दिया था है आग जहाँ पर वहाँ जाना भी नहीं है पर आँख से टपकाएँ लहू किस लिए 'शातिर' जब अह्द-ए-वफ़ा हम को निभाना भी नहीं है