मिरी निगाह में साक़ी भी है शराब भी है कि माहताब भी है और आफ़्ताब भी है मुझी को ख़ंजर-ए-क़ातिल ने इंतिख़ाब किया मिरा ही क़त्ल गुनह भी है और सवाब भी है ख़ुदाई भर का जो हिस्सा था दे दिया मुझ को मिरे ग़मों का इलाही कोई हिसाब भी है भुलाए बैठे हैं 'अरमाँ' निज़ाम-ए-रोज़-ओ-शब मिरी निगाह में गुल-रू भी है नक़ाब भी है