अब मिरी चश्म की तस्ख़ीर नहीं होती है सो मिरी आह में तासीर नहीं होती है मैं भी पाबंद-ए-सलासिल नहीं रह पाता हूँ उस की ज़ुल्फ़ों से भी ज़ंजीर नहीं होती है वो ही आ कर करे जिस से भी हो ये वाबस्ता मुझ से इक ख़्वाब की ता'बीर नहीं होती है शोख़ आँखों में जो होती है रक़म ख़ुशबू से ऐसी तसनीफ़ की तफ़्सीर नहीं होती है ऐ ज़माने मैं गुनहगार नहीं बस मुझ से अपने हक़ में कभी तक़रीर नहीं होती है उसी दीवार की तस्वीर डराती है मुझे वो ही जिस पर कोई तस्वीर नहीं होती है ख़ुद-ग़रज़ हाथ हैं और उन में सियासी नक़्शे यूँ किसी अह्द की ता'मीर नहीं होती है वरक़-ए-अस्र कि जिस को है इबारत का जुनूँ और ये साअ'त कि जो तहरीर नहीं होती है