अब मिरी निगाहों में औज है न पस्ती है एक सैल-ए-मद-होशी इक हुजूम-ए-मस्ती है ऐ निगाह-ए-ना-महरम इश्क़ की वो बस्ती है जिस क़दर उजड़ती है उस क़दर ही बस्ती है आशिक़ी-ओ-महबूबी आइने के दो रुख़ हैं हुस्न एक बादा है इश्क़ एक मस्ती है जज़्बा-ए-इबादत को रख जज़ा से बेगाना वर्ना हक़-परस्ती भी इक हवस-परस्ती है दिल की पाएमाली का ग़म तो कुछ नहीं लेकिन ऐसी पुर-फ़ज़ा बस्ती मुश्किलों से बस्ती है दीदा-वर कोई देखे शान-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना इस ख़ुदी के चेहरे से बे-ख़ुदी बरसती है हिम्मतों के बल उट्ठो ख़ुद-रवी के बल निकलो लग़्ज़िशों के बल चलना नंग-ए-मय-परस्ती है आदमी के चेहरे पर बंदगी नहीं रहती वर्ना ख़ुद-परस्ती भी इक ख़ुदा-परस्ती है