अब न वो शाख़ है न पत्थर है कब से जंगल में कोई बे-घर है कोई साया नज़र नहीं आता जब से आँखों में एक पैकर है हाँ कभी घूमती रही होगी अब ज़मीं बे-नियाज़-ए-मेहवर है ज़हर पीने कोई नहीं आता कितना बे-ताब ये समुंदर है रूठ कर चल दिए नए राही सर झुकाए खड़ा सनोबर है मुड़ के देखो तो संग हो जाओ और आगे बढ़ो समुंदर है अपना शीशा लिए कहाँ जाऊँ शहर का शहर सारा पत्थर है