अब न कीजे ख़्वाहिश-ए-बर्ग-ओ-समर की जुस्तुजू छोड़िए कश्ती बनाने के हुनर की जुस्तुजू उम्र-ए-रफ़्ता जा किसी दीवार के साए में बैठ बे-सबब की ख़्वाहिशें हैं और घर की जुस्तुजू बे-घरी के दौर-ए-पुर-आशोब में भी जाने क्यों है सभी के दिल में बस दीवार-ओ-दर की जुस्तुजू क़ुर्बतों के साथ जीने का हुनर आया न फिर अब कहाँ मुझ को किसी भी हम-सफ़र की जुस्तुजू एक लम्हे को भी हासिल है सुकून-ए-दिल कहाँ फिर भी दिल को है मिरे शाख़-ए-शजर की जुस्तुजू अब शिकस्ता ख़्वाब पलकों पर नहीं आते मिरी मुझ को भी 'रिज़वाँ' नहीं अब चश्म-ए-तर की जुस्तुजू