अब नहीं कोई जबीं माह-ए-दरख़्शाँ की तरह अब कोई आँख नहीं चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की तरह अब कहीं भी नज़र आते नहीं आरिज़ के गुलाब अब कोई ज़ुल्फ़ कहाँ सुम्बुल-ओ-रैहाँ की तरह इस भरे शहर में अब कोई ज़ुलेख़ा ही नहीं एक चेहरा भी नहीं सूरत-ए-जानाँ की तरह कीजिए भी तो कहाँ उस रुख़-ए-ज़ेबा की तलाश कोई कूचा ही नहीं कू-ए-निगाराँ की तरह ज़िंदगी बन गई इक सोज़-ए-दरूँ तेरे बग़ैर काटे कटती ही नहीं है शब-ए-हिज्राँ की तरह ले के आई तिरी यादों के महकते हुए फूल कोई मौसम ही नहीं फ़स्ल-ए-बहाराँ की तरह जान-ए-जाँ मेरी वफ़ाओं का सिला दो कि न दो कौन चाहेगा तुम्हें इस दिल-ए-नादाँ की तरह