अब शिकायत क्या करें गुज़रे हुए तूफ़ान से रौशनी आने लगी है फिर से रौशन-दान से ख़्वाहिशों की अर्थियाँ अब तो उठेंगी शान से दिल लगा बैठी है मेरी मुफ़लिसी धनवान से छू गया जो भूल से उन के दुपट्टे का सिरा ख़ुशबुएँ आने लगीं सूखे हुए गुल-दान से ज़ह्न पर दुनिया की लालच फिर से हावी हो गई दे के मिट्टी मैं अभी लौटा था क़ब्रिस्तान से गर वफ़ादारी की ख़्वाहिश है तो कुत्ते पाल ले मत वफ़ा की आस रख इस दौर के इंसान से शर्त ये है कुछ ज़मीं बोने की ख़ातिर तो मिले जीत लूँगा मैं जहाँ को एक मुट्ठी धान से छेड़ती है याद तेरी जब मुझे पिछले पहर रोने लगता हूँ मैं लग के 'मीर' के दीवान से जिन को हो जाम-ए-शहादत की तलब 'दीदार' फिर वो नहीं आते पलट कर जंग के मैदान से