अब तक थे वाबस्ता जो अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से अपनी क़ीमत माँग रहे हैं बे-क़द्रे इंसानों से मौजों के क़िर्तास पे देखो दस्त-ए-क़ुदरत का आलम एक मक़ाला लिखता है वो कितने ही उनवानों से जब से है सीने के अंदर हर-सू तारी सन्नाटा वहशत है न ख़ौफ़ रहा है इस दिल को वीरानों से कितने ही ख़ुर्शीद अगरचे उम्मीदों के डूब चुके एक दिया रक्खा है रौशन लड़ने को तूफ़ानों से उस की यादों से तुम अब तक मुँह को फेर के बैठे हो ऐसे कब रूठा करते हैं घर आए मेहमानों से उस ने भी हल्क़े में अपने फ़र्ज़ानों को ढूँड लिया हम ने भी कर ली है संगत सहरा में दीवानों से हम तो पत्थर की बस्ती में शीशों के रखवाले हैं ज़ख़्मों की तादाद न पूछो हम जैसे नादानों से मिट्टी में दफ़ना कर ऐसे झाड़ रहे हैं हाथ सभी बोझ उतारा है रिश्तों का जैसे अपने शानों से रिंदों से अब मयख़ाने का पूछो न अहवाल 'शकील' रिश्ता जब तुम तोड़ चुके हो साक़ी से पैमानों से