अब तक तो था नीयत पे अब शक है लियाक़त पे काफ़ी है ये इक मिसरा' क़ाइद की क़यादत पे वोटों के लिए दंगे अब 'आम रिवायत है गर ये है सियासत तो ला'नत है सियासत पे ये काठ की हाँडी को फिर फिर हैं चढ़ा लेते हैराँ है जहाँ इन की इस फ़न में महारत पे क्या ख़ूब क़वाइ'द हैं ये अम्न-बहाली के आज़ाद है नफ़रत और पहरे हैं मोहब्बत पे घड़ियाल के आँसू ये क्या ख़ूब बहाते हैं दहक़ान की ग़ुर्बत पे मज़दूर की हालत पे ये अहल-ए-सियासत सब, बस उन के पियादे हैं क़ाबिज़ हैं जो कुछ कुनबे कुल मुल्क की दौलत पे सदियों की ग़ुलामी का शायद है असर बाक़ी बजती है यहाँ ताली हाकिम की हिमाक़त पे हर फ़तवा-ए-मुफ़्ती में था दख़्ल-ए-शह-ए-दौराँ क्यों आज उठाते हो अंगुश्त अदालत पे सर शर्म से झुकता है अफ़गार है दिल होता होती है सियासत जब अफ़सोस शहादत पे रहबर है 'सदा' कौन अब कुछ आस करें जिस से इक भी तो नहीं चलता अब राह-ए-सदाक़त पे