अब तो आ जा मिरी पलकें हैं ये प्यासी कब से फ़र्श-ए-रह बैठी है आ देख उदासी कब से मुझ को भी अच्छा नहीं लगता सँवरना लेकिन तर्क तू ने किया ये ज़ौक़-ए-लिबासी कब से घर में रिश्तों की कड़ी टूट गई हो जैसे घर में रहने लगी इक बात ज़रा सी कब से बाँटता फिरता है दर दर तू मोहब्बत सब को घर में बैठी है इधर देख पियासी कब से दिल लुभाती रही इक उम्र ये दुनिया लेकिन मुंतज़िर फूल रहे घर में ये बासी कब से याद आती ही नहीं तुझ को मुझे हैरत है मुंतज़िर है किसी दहलीज़ पे माँ सी कब से बाल फैलाए हुए फिरती है नफ़रत हाए हो चुकी 'फ़हमी' मोहब्बत की ख़लासी कब से