तिश्नगी में कोई क़तरा न मयस्सर आया मर गई प्यास तो हिस्से में समुंदर आया जितने ग़व्वास थे वो तह से न ख़ाली लौटे जो शनावर थे उन्हें हाथ न गौहर आया मेरी क़िस्मत में वही शब वही ज़ुल्मत का गुज़र सुब्ह आई न मिरा मेहर-ए-मुनव्वर आया सर झुकाया तो मुझे रौंद गई है दुनिया सर उठाया तो हर इक सम्त से पत्थर आया वो तो ख़ुश है कि मुझे मार गिराया उस ने मुझ को ग़म है कि मिरी पीठ पे ख़ंजर आया चंद ही रोज़ में औक़ात कोई भूल गया गाँव में शहर की पोशाक पहन कर आया सो गया थक के हर इक बीन बजाने वाला साँप कोई भी मगर बिल से न बाहर आया प्यार की राह में वो धूप की शिद्दत थी 'ज़फ़र' मैं भी ग़श खा के गिरा उन को भी चक्कर आया