अब तो इक पल के लिए भी न गंवाएँगे तुम्हें ख़ुद को हारेंगे मगर जीत के लाएँगे तुम्हें हम को पत्थर के पिघलने का अमल देखना है डूबते डूबते आवाज़ लगाएंगे तुम्हें दिल पे इक बोझ है कुछ सोच के डर लगता है क़िस्सा-ए-दर्द कभी और सुनाएँगे तुम्हें ज़ाहिरी आँखें हमें ढूँढ कहाँ पाएँगी चश्म-ए-बातिन से जो देखो नज़र आएँगे तुम्हें हैं अभी पास बहुत पास मगर सच कहना दूर हो जाएँ तो क्या याद न आएँगे तुम्हें