अब तो जीने की कोई राह नहीं अपने ही शहर में पनाह नहीं जानते सब हैं मेरे क़ातिल को फिर भी मेरा कोई गवाह नहीं एक वो हैं कि हर जफ़ा है रवा एक हम हैं कि इज़्न-ए-आह नहीं भाई भाई का हो गया दुश्मन अब किसी से भी रस्म-ओ-राह नहीं बंद कर दो अदालतों की किताब अब कोई शय यहाँ गुनाह नहीं बद-नसीबी की इंतिहा है 'उमर' रौशनी है मगर निगाह नहीं