अब तो शहरों से ख़बर आती है दीवानों की कोई पहचान ही बाक़ी नहीं वीरानों की अपनी पोशाक से हुश्यार कि ख़ुद्दाम-ए-क़दीम धज्जियाँ माँगते हैं अपने गरेबानों की सनअतें फैलती जाती हैं मगर इस के साथ सरहदें टूटती जाती हैं गुलिस्तानों की दिल में वो ज़ख़्म खिले हैं कि चमन क्या शय है घर में बारात सी उतरी हुई गुल-दानों की उन को क्या फ़िक्र कि मैं पार लगा या डूबा बहस करते रहे साहिल पे जो तूफ़ानों की तेरी रहमत तो मुसल्लम है मगर ये तो बता कौन बिजली को ख़बर देता है काशानों की मक़बरे बनते हैं ज़िंदों के मकानों से बुलंद किस क़दर औज पे तकरीम है इंसानों की एक इक याद के हाथों पे चराग़ों भरे तश्त काबा-ए-दिल की फ़ज़ा है कि सनम-ख़ानों की