अब तो ज़िंदा हुए हैं हम मर के आइए देख लें नज़र भर के साग़र-ए-मौत दे मुझे भर के उन के वा'दे हैं रोज़-ए-महशर के याद आती हैं यार की आँखें साक़िया जाम दे मुझे भर के ज़िंदा रहते हैं या कि मरते हैं मुंतज़िर हैं विसाल-ए-दिलबर के नामा-बर का पता नहीं शायद काट डाले हों पर कबूतर के एक ही वार में तमाम किया सदक़े हो जाऊँ तेरे ख़ंजर के सुब्ह रुख़ पर पड़ी है गेसु-ए-शब अब हैं मेहमान हम भी शब भर के बहर दिल हो गया है तूफ़ाँ में उड़ गए होश दीदा-ए-तर के नक़्श-ए-पा बन के ऐ 'क़मर' रहना पीर-ओ-मुर्शिद के और पयम्बर के