अब उस की याद सताने को बार बार आए वो ज़िंदगी जो तिरे शहर में गुज़ार आए ये बेबसी भी नहीं लुत्फ़-ए-इख़्तियार से कम ख़ुदा करे न कभी दिल पे इख़्तियार आए क़दम क़दम पे गुलिस्ताँ खिले थे रस्ते में अजीब लोग हैं हम भी कि सू-ए-दार आए न चहचहे न सुरूद-ए-शगुफ़्तगी न महक किसे अब ऐसी बहारों पे ए'तिबार आए जुनूँ को अब के गरेबाँ से क्या मिलेगा कि हम ब-फ़ैज़-ए-मौसम-ए-गुल पैरहन उतार आए तिरी लगन ने ज़माने की ख़ाक छनवाई तिरी तलब में तमाम आरज़ुएँ हार आए ये फ़ख़्र कम तो नहीं कू-ए-यार में 'निकहत' न शर्मसार गए थे न शर्मसार आए