अब वो फ़रमाते हैं कब मैं ने दिखाईं आँखें आप ने मुफ़्त में रो रो के सुजाईं आँखें मुज़्तरिब हम भी रहे रात तड़प कर काफ़ी दिल भी बेचैन रहा उन की जो आईं आँखें हुस्न-ए-मग़रिब में हमीं साअद-ओ-गेसू के सिवा और भी कुछ नज़र आया तो वो भाईं आँखें रात मुझ मुल्ज़म-ए-पा-बोस को अज़-राह-ए-करम सरज़निश कुछ भी न की ख़ुद वो लजाईं आँखें दाग़ लग जाएगा दामान-ए-वफ़ा में 'हसरत' तुम ने देखो जो कहीं और लगाईं आँखें