अब वो गली जा-ए-ख़तर हो गई हाल से लोगों को ख़बर हो गई वस्ल की शब क्या कहूँ क्यूँ कर कटी बात न की थी कि सहर हो गई देखेंगे ऐ ज़ब्त ये दा'वे तिरे रात जुदाई की अगर हो गई हज़रत-ए-नासेह ने कही बात जो हम-असर-ए-दर्द-ए-जिगर हो गई मैं न हुआ ग़ैर हुए मुस्तफ़ीज़ तेरी नज़र थी वो जिधर हो गई याद किसी की मुझे फिर इन दिनों जोश-ज़न-ए-दीदा-ए-तर हो गई किस की हम-आग़ोशी का था अज़्म जो ज़ुल्फ़ तिरी तौक़े-ए-कमर हो गई