अब वो पहले से मेहर-ओ-माह नहीं कोई आसूदा-ए-निगाह नहीं जो भी निकला तुम्हारी महफ़िल से उस को दुनिया में फिर पनाह नहीं इश्क़ का दर्द फिर बुरा किया है मौत लाज़िम है इश्तिबाह नहीं ज़िंदगी ही गुनाह जब ठहरी ज़िंदगी में कोई गुनाह नहीं दुश्मनों से तो है हज़र मुमकिन दोस्तों से कहीं पनाह नहीं तुम अगर मरकज़-ए-तमन्ना हो फिर तमन्ना कोई गुनाह नहीं इक झलक उन की देख ली 'एहसास' अब कोई मरकज़-ए-निगाह नहीं