अब यही बेहतर है नक़्श-ए-आब होने दे मुझे यूँही रुस्वा ख़ातिर-ए-अहबाब होने दे मुझे नींद आँखों में परिंदों की तरह उतरी है आज ऐ नफ़स आहिस्ता चल ग़र्क़ाब होने दे मुझे एक टुकड़ा अब्र का फिरता है मानिंद-ए-ग़ज़ाल ऐ मिरी चश्म-ए-हवस सैराब होने दे मुझे उम्र भर में एक काम ऐसा तो कर शौक़-ए-जुनूँ मैं अगर दरिया हूँ तो बे-आब होने दे मुझे मैं भी पत्थर बन के ज़ेर-ए-आब सो जाऊँ कहीं कब हुआ ऐसा कि अब गिर्दाब होने दे मुझे मेहरबाँ जंगल के साए तू ही दे अपनी पनाह ख़्वाब आँखों में हैं महव-ए-ख़्वाब होने दे मुझे प्यास कहती है कि चल दरिया उठा लाएँ यहीं दर्द कहता है कि रुक पायाब होने दे मुझे