अब ये सिफ़त जहाँ में नायाब हो गई है मलमल बदन पे उस के कम-ख़्वाब हो गई है कोई पता दे उस को मेरी किताब-ए-जाँ का दुनिया के साथ वो भी इक बाब हो गई है फूलों-भरी ज़मीं हो ख़ुश्बू-भरी हों साँसें ये आरज़ू भी मेरी क्या ख़्वाब हो गई है मैं बस ये कह रहा हूँ रस्म-ए-वफ़ा जहाँ में बिल्कुल नहीं मिटी है कमयाब हो गई है तकमील पा रहा है ये किस के घर का नक़्शा दीवारें उठ चुकी हैं मेहराब हो गई है चश्मे उबल रहे हैं दश्त ओ जबल से कैसे क्या ये ज़मीन इतनी सैराब हो गई है