मो'जिज़ा वो जो मसीहा का दिखाते जाते कह के क़ुम क़ब्र से मुर्दे को जिलाते जाते मरते दम बाग़-ए-मदीना का नज़ारा करते देख लेते चमन-ए-ख़ुल्द को जाते जाते देख कर नूर-ए-तजल्ली को तिरे दीवाने धज्जियाँ दामन-ए-महशर की उड़ाते जाते बन के परवाना मिरी रूह निकलती तन से लौ जो इस शम्अ-ए-तजल्ली से लगाते जाते इक नज़र देखते ही रू-ए-मोहम्मद की ज़िया ग़श पे ग़श हज़रत-ए-यूसुफ़ को हैं आते जाते है वो सहरा-ए-जुनूँ आप के दीवानों का हज़रत-ए-ख़िज़्र जहाँ ठोकरें खाते जाते ऐसा महबूब हुआ कौन कि उम्मत के लिए रूठते आप तो अल्लाह मनाते जाते तूर पे हज़रत-ए-मूसा न कभी जल-बुझते आप आँखों में जो सुर्मा न लगाते जाते सफ़-ए-महशर में इलाही ब-हुज़ूर-ए-सरवर ना'त पढ़ पढ़ के ये शोहरत की मनाते जाते