दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा क़ज़ा-ओ-क़द्र का चेहरा उतर गया होगा जो अपने हाथों लुटे हैं बस इस पे ज़िंदा हैं ख़ुदा कुछ उन के लिए भी तो सोचता होगा तिरी गली में कोई साए रात भर अब भी सुराग़-ए-जन्नत गुम-गश्ता ढूँडता होगा जो ग़म की आँच में पिघला किया और आह न की वो आदमी तो नहीं कोई देवता होगा तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा इस आइने का मुक़द्दर ही टूटना होगा है मेरे क़त्ल की शाहिद वो आस्तीं भी मगर मैं किस का नाम लूँ सौ बार सोचना होगा ये मेरी प्यास के साग़र तेरे लबों की शराब रवाज-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत का मोजज़ा होगा फिर आरज़ू के खंडर रंग-ओ-बू में डूब चले फ़रेब-ख़ुर्दा कोई ख़्वाब देखता होगा सितारे भी तिरी यादों के बुझते जाते हैं ग़म-ए-हयात का सूरज निकल रहा होगा सदा किसे दें 'नईमी' किसे दिखाएँ ज़ख़्म अब इतनी रात गए कौन जागता होगा