ख़िरद में मुब्तिला है 'सालिक' दीवाना बरसों से

ख़िरद में मुब्तिला है 'सालिक' दीवाना बरसों से
नहीं आया वो मय-ख़ाने में बेबाकाना बरसों से

मयस्सर जिस से आ जाती थी साक़ी की क़दम-बोसी
मुक़द्दर में नहीं वो लग़्ज़िश-ए-मस्ताना बरसों से

ब-याद-ए-चश्म-ए-यार इक नारा-ए-मस्ताना ऐ साक़ी
कि हाव हू से ख़ाली है तिरा मय-ख़ाना बरसों से

तुझे कुछ इश्क़ ओ उल्फ़त के सिवा भी याद है ऐ दिल
सुनाए जा रहा है एक ही अफ़्साना बरसों से

किसी को तो मुशर्रफ़ कर दे ऐ शौक़-ए-जबीं-साई
तक़ाज़ा कर रहे हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से

नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो
कि सूना है शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना बरसों से

कोई जौहर-शनास आए तो जाने क़दर 'सालिक' की
पड़ा है ख़ाक पर ये गौहर-ए-यक-दाना बरसों से


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