कहाँ शिकवा ज़माने का पस-ए-दीवार करते हैं हमें करना है जो भी हम सर-ए-बाज़ार करते हैं ज़माने से रवादारी का रिश्ता अब भी बाक़ी है मगर सौदा किसी से दिल का हम इक बार करते हैं महाज़-ए-जंग पर सीना-सिपर हो कर मैं चलता हूँ मगर बुज़दिल हमेशा पुश्त पर ही वार करते हैं नहीं मिलती उन्हें मंज़िल जिन्हें ख़ौफ़-ए-हवादिस है जो मौजों से नहीं डरते नदी को पार करते हैं 'मजीद' अच्छा नहीं होता किसी से भी जुदा होना मगर ये रस्म-ए-दुनिया हम अदा सौ बार करते हैं