अभी कमी है बहुत तुझ में देख ऐसा कर किसी बुज़ुर्ग के साए में रोज़ बैठा कर शुआ-ए-महर बसारत को छीन लेती है नज़र उठा के न सूरज की सम्त देखा कर मुझे यक़ीं है कि जा कर भी लौट आएगा हज़ार बार बिछड़ने का तू इरादा कर चमक रहे हैं अंधेरे में काँच के टुकड़े तुझे दिखाई न देंगे ज़रा उजाला कर बजा कि हिस्सा-ए-हक़ भी न मिल सका लेकिन 'असर' उदास न हो अपना दिल कुशादा कर