अब्र हूँ धूप हूँ सहरा हूँ समुंदर हूँ मैं मुख़्तलिफ़ रूप हैं मेरे कि सुख़नवर हूँ मैं धूप निकलेगी तो उन का भी भरम टूटेगा जिन की नज़रों में अभी मोम का पैकर हूँ मैं किसी दामन के मुक़द्दर को जगाने के लिए वक़्त की पलकों पे ठहरा हुआ गौहर हूँ मैं तू जो छू ले तो ख़द्द-ओ-ख़ाल नुमायाँ हो जाएँ वर्ना धुँदलाया हुआ ख़्वाब सा मंज़र हूँ मैं देखना जब किसी मे'मार के हाथ आउँगा आज दीवार से उखड़ा हुआ पत्थर हूँ मैं ख़ुद-शनासों ने अभी मुझ को खंगाला ही नहीं वर्ना हर रंग-ए-तलातुम का शनावर हूँ मैं जिस पे तहरीर भी तक़रीर भी नाज़ाँ है 'नज़ीर' ऐसा शहबाज़-ए-क़लम ऐसा सुख़नवर हूँ मैं