अब्र हूँ और बरसने को भी तय्यार हूँ मैं तुझ को सैराब करूँगा कि धुआँ-धार हूँ मैं अब तो कुछ और ही ख़तरात से दो-चार हूँ मैं अपने ही सर पे लटकती हुई तलवार हूँ मैं तब मैं इक आँख था जब तो कोई मंज़र भी न था आज तस्वीर है तो नक़्श-ब-दीवार हूँ मैं हिज्र के बाद के मंज़र का किनाया हूँ कोई इक धुआँ सा पस-ए-दीवार-ए-शब-ए-तार हूँ मैं मेरा सरमाया तो बस मंज़र-ए-बे-मंज़री है शहर-ए-बे-अक्स का इक आईना-बरदार हूँ मैं डाल के सर को गिरेबाँ में लरज़ उठता हूँ मुट्ठी-भर ख़ाक नहीं एक सियह ग़ार हूँ मैं देख शामिल ही नहीं इस में कोई मेरे सिवा देख किस क़ाफ़िला-ए-ज़ात का सालार हूँ मैं बस यही है मिरे होने का जवाज़ और सुराग़ इक न होने से मियाँ बर-सर-ए-पैकार हूँ मैं