अब्र का सर पे साएबाँ भी तो हो सोहबत याद-ए-रफ़्तगाँ भी तो हो टूटे कैसे यहाँ सुकूत-ए-सुख़न शहर में कोई हम-ज़बाँ भी तो हो चाँद-तारे लिए कहाँ टाँकें अपने हिस्से में आसमाँ भी तो हो मेज़ गुल-दान तितलियाँ खिड़की ऐसे मंज़र में एक मकाँ भी तो हो अक्स चेहरे से छाँटना है अगर एक आईना दरमियाँ भी तो हो शे'र बूँदें बने ग़ज़ल धारा फ़िक्र-ए-'साबिर' रवाँ-दवाँ भी तो हो