अब्र-ए-रहमत घरों पे रहते थे जब दुपट्टे सरों पे रहते थे वो भी पर्दा-दरों में शामिल हैं पर्दे जिन के दरों पे रहते थे आज के ताजवर हैं जो कल तक वक़्त की ठोकरों पे रहते थे उन की किरचों से पावँ ज़ख़्मी हैं होंट जो साग़रों पे रहते थे रक़्स करते थे हम भी लेकिन हाँ मरकज़ों महवरों पे रहते थे हम को रहना पड़ा वहाँ 'परवीन' दिल जहाँ ख़ंजरों पे रहते थे