अच्छा क़िसास लेना फिर आह-ए-आतिशीं से आओ इधर पसीना तो पूछ दूँ जबीं से मेरा नियाज़ फिर भी ठुकराया जा रहा है निकली है रस्म-ए-सज्दा गो मेरी ही जबीं से मजबूरी-ए-मोहब्बत इंसाफ़ चाहती है शिकवा भी है तुम्हीं से फ़रियाद भी तुम्हीं से हाँ हम भी जानते हैं मुद्दत से उन बुतों को का'बे के रहने वाले निकले हैं आस्तीं से सूरज की तेज़ किरनें काम अपना कर रही हैं बैठा हूँ मुँह छुपाए इक भीगी आस्तीं से वो संग-ए-दर सलामत आँखों से देख लेना इक दिन तुलूअ' होगा इक चाँद इसी जबीं से पानी की चादरें हैं ख़ुश्की है मौत उन की ये अश्क पाक होंगे साहिल की आस्तीं से थे आसमाँ कभी हम अब तो नज़र से गिर कर ख़ुद अपनी ज़िंदगी में हम मिल गए ज़मीं से सारा ग़ुरूर-ए-सज्दा मिट्टी में मिल रहा है इक नक़्श-ए-पा उठाए उठता नहीं जबीं से क्यूँ हूँ 'सिराज' फिर हम मुहताज-ए-दिल-नवाज़ी मिल जाए माँगे-जाँचे कुछ दर्द अगर कहीं से