अच्छे कभी बुरे हैं हालात आदमी के पीछे लगे हुए हैं दिन रात आदमी के रुख़्सत हुए तो जाना सब काम थे अधूरे क्या क्या करें जहाँ में दो हात आदमी के मिट्टी से वो उठा है मिट्टी में जा मिलेगा उड़ते फिरेंगे इक दिन ज़र्रात आदमी के इक आग हसरतों की सोचों का इक समुंदर क्या क्या वबाल यारब हैं साथ आदमी के इस दौर-ए-इर्तिक़ा में 'मुंज़िर' क़दम क़दम पर पामाल हो रहे हैं जज़्बात आदमी के