अच्छा हुआ ये वक़्त तो आना ज़रूर था मुद्दत से कश्मकश में दिल-ए-ना-सुबूर था दुनिया का होशियार बड़ा ज़ी-शुऊर था जब तक मिरे कहे में दिल-ए-ना-सुबूर था मेरा क़ुसूर मेरी नज़र का क़ुसूर था वो जिस क़दर क़रीब था उतना ही दूर था अच्छा हुआ जो दिल की तड़प और बढ़ गई जाना भी उन की बज़्म में मुझ को ज़रूर था उस बे-निशाँ का आज निशाँ ढूँडते हैं आप सुनिए वही जो नाज़िश-ए-अहल-ए-क़ुबूर था वो दौर मेरी उम्र का था यादगार दौर जिस में कि तेरे हुस्न पे मुझ को ग़ुरूर था ले आया कौन गोर-ए-ग़रीबाँ में खींच कर कोसों अभी मैं मंज़िल-ए-मक़्सद से दूर था वाइ'ज़ ने ज़िक्र-ए-वअ'दा-ए-फ़िरदौस क्यूँ किया उस रिंद से जो नश्शा-ए-वहदत से चूर था अब आ के मेरी लाश से फ़रमा रहे हैं वो 'आलिम' ये तेरी अक़्ल-ओ-फ़रासत से दूर था